
देश में जहां राजनीति पहले जाति और धर्म पर बंट रही थी, अब भाषा भी नया battleground बन गई है।
दिल्ली पुलिस की एक कथित टिप्पणी — जिसमें बंगाली को “बांग्लादेशी भाषा” कहा गया — ने न सिर्फ सोशल मीडिया बल्कि पूर्वोत्तर के राजनीतिक हलकों में भी आग लगा दी है।
प्रद्योत देबबर्मा ने खींची भाषाई लकीर — “जन गण मन” याद है न?
टिपरा मोथा के संस्थापक और त्रिपुरा के शाही वंशज प्रद्योत किशोर माणिक्य देबबर्मा ने इस बयान पर Facebook पर गहरी आपत्ति जताते हुए लिखा:
“बांग्लादेशी भाषा जैसी कोई चीज़ है ही नहीं। हम कैसे भूल सकते हैं कि राष्ट्रगान भी मूल रूप से बंगाली में लिखा गया था?”
यह लाइन महज़ रिएक्शन नहीं थी — यह एक संविधाननुमा रिमाइंडर था।
“आज बंगाली, कल कौन?” — देबबर्मा ने दिया वॉर्निंग अलर्ट
प्रद्योत ने सिर्फ बंगाली नहीं, भारत की तमाम भाषाओं — कोकबोरोक, तमिल, बोडो, मिज़ो, हिंदी, अंग्रेज़ी — का जिक्र करते हुए कहा कि:
“हमें एक-दूसरे की भाषाओं का सम्मान करना सीखना होगा। जब एक भाषा पर हमला होता है, तो राष्ट्रीय एकता कमजोर होती है।”
ये बयान उस समय आया जब पूर्वोत्तर में “अवैध प्रवास बनाम भाषाई पहचान” की बहस पहले से ही तेज़ है।
भाषा बनाम राष्ट्रवाद — यूनुस कार्ड भी खेला गया!
प्रद्योत ने अपने पोस्ट में नवंबर 2024 में नोबेल विजेता मोहम्मद यूनुस द्वारा भारत को लेकर दिए गए बयान का जिक्र करते हुए कहा कि ऐसे गैर-जिम्मेदार बयान भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि को नुकसान पहुंचा सकते हैं।
उनका इशारा ये भी था कि राज्य एजेंसियों की लापरवाह भाषा नीति आगे चलकर कट्टरपंथी विचारधाराओं को ताकत दे सकती है।
भाषा कोई राष्ट्र विरोधी चीज़ नहीं, वह तो भारत की आत्मा है
भारत की विविधता उसकी ताकत है, और अगर उस विविधता की नींव — भाषाएं — ही असम्मानित होने लगें, तो फिर “अनेकता में एकता” बस NCERT की किताबों तक सीमित रह जाएगी।
प्रद्योत देबबर्मा का स्टैंड एक रॉयल वार्निंग है — भाषा को देशभक्ति का पैमाना मत बनाओ, वरना जुबानें तो रहेंगी, लेकिन दिल अलग हो जाएंगे।
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